झुकने के लिए अदम्य #साहस चाहिए होता है ,इस जगत में जीव अहम रूपी लाचारी की धरा पे विवशतापूर्ण खड़ा है क्योंकि इस जगत के नियम में जीवित रहने का #युद्ध ही दूसरे के मर्दन पे और मेरे मैं के लौह स्तम्भ पर टिका है ।
एक मात्र उस परम प्रेमपूर्ण दृष्टि का उस चेतना को छूना ही उसको बदहवास भगाता सांसारिक चकाचौंध से भीतर की ओर कि ये क्या छुआ मुझे तभी उस की #सुगंध में महकता कोई पुष्प उसे अपनी ओर खींच के लाता है और ला पटकता उसके दम्भी शीश को उसके ऊर्जा क्षेत्र में जहां वो न् जाने क्यों झुक जाता ,न् जाने क्यों सिर्फ अश्रुधार से उस मूर्ख के पैरों को स्नान कराया करता उसे ज्ञात ही न् हो पाता क्यों झुक रहा ,क्यों बह रहा ,क्यों एक अलग #मस्ती में खिलखिला रहा, सहसा ये क्या पागलपन हो गया ,अब नींद नही है और है भी,भूख है भी नही भी।अब सिर्फ झुक ही नही रहा मर रहा धीमे धीमे उस परम के द्वार जहां सर उठा के झुकना असंभव ,उस द्वार ही नही उस सूक्ष्म छिद्र से तो बस तरल जल की एक इकाई हो ही रिस रिस के उस द्वार खिसकना होता है।
जय श्री काल भैरव